Monday, September 27, 2010

# "जाने कहाँ गए यह निर्देशक...!"

दोस्तों,यूँ तो हिंदी सिनेमा ने एक से एक प्रतिभाशाली निर्देशक वक़्त-वक़्त पर सिनेमा दर्शकों को दिए हैं जिन्होंने अपनी कला से हम सब को लम्बे समय तक चमकृत किया है परन्तु जब कभी कोई नया निर्देशक बहुत कम समय में ही अपनी फिल्मों से बहुत अधिक उम्मीदें जगा दे और अचानक ही रुपहले परदे से गायब हो जाये या बहुत जल्द ही अपनी चमक खो बैठे तो बरबस ही यह ख्याल आता ही आख़िरकार ऐसा क्या और क्यों हुआ उसके साथ!
आज हम बात करेंगे ऐसे ही कुछ निर्देशकों की जिन्होंने आशा से अधिक उम्मीदें जगाई लेकिन जब उन्हें परवान चढाने का वक़्त आया तो वो गैर-हाज़िर थे अथवा हाशिये पर.
इस कड़ी में सबसे पहला नाम ज़हन में आता है 'मंसूर खान' का जिन्होंने 'क़यामत से क़यामत तक,जो जीता वही सिकंदर,अकेले हम अकेले तुम' और 'जोश' जैसी फिल्में बनाकर अपना नाम अति-प्रतिभाशाली निर्देशकों के सूचि तो दर्ज तो करवा लिया परन्तु उसके बाद अचानक ऐसा क्या हुआ जो उन्हें फिल्मों और फ़िल्मी दुनिया से दूर ले गया ये समझ नहीं आया!आइये मिलकर इसी तरद्दुद(परेशानी) को दूर करने की कोशिश करते हैं. 












  






मंसूर खान का ताल्लुक फ़िल्मी परिवार से रहा है,यह मशहूर निर्माता-निर्देशक एवं लेखक 'नासिर हुसैन' के पुत्र हैं जिन्होंने 'कारवां,तीसरी मंजिल,हम किसी से कम नहीं,यादों की बारात,ज़बरदस्त',आदि जैसी मनोरंजक फिल्में बनायीं हैं.
मंसूर खान ने अपना कैरियर शुरू किया था अपने होम प्रोडक्शन की फिल्मों 'मंजिल-मंजिल एवं ज़बरदस्त' में सहायक निर्देशक के तौर पर और बाद में जब 'क़यामत से क़यामत तक' की रूपरेखा बनना शुरू हुई तब निर्देशन की बागडोर इनके युवा हाथों में दी गयी.80's के दशक के अंत में जब फिल्म इंडस्ट्री सफलता की दिशा के लिए जूझ रही थी तब संगीतमय रोमांटिक फिल्मों के दौर की सफल वापसी की निशानदेही करती सही मायनो में यही वो फिल्म थी जिसने रोमांटिक फिल्मों के लिए वो ट्रैक तैयार किया जिसपर आने वाले वर्षों में 'दिल,आशिकी' जैसी फिल्मों ने सफलता के परचम लहराए.
नया हीरो,नई संगीत निर्देशक जोड़ी और नया निर्देशक....फिल्म के सैट पर हवाओं में शंका तैर रही थी पर जब फिल्म प्रदर्शित हुई तो सफलता की उजली किरणों ने शंका के बादलों को छिन्न-भिन्न कर दिया.इस फिल्म में पहली सबसे कमाल की बात रही इसका ताज़ी हवा के झोंके सा कर्णप्रिय संगीत जिसको तैयार किया था अपने ज़माने के मशहूर संगीतकार 'चित्रगुप्त' के गुणी पुत्रों 'आनंद-मिलिंद' की जोड़ी ने और दूसरी कमाल की बात थी बेहद कसा हुआ कुशल निर्देशन जिसमे तिनका भर भी अस्त-व्यस्तता नहीं झलकती,हर सीन,हर फ्रेम में बिलकुल फिट,ज़रा सी भी ढील या झोल-झाल नहीं.
मंसूर खान को ज़्यादा गंभीरता से लिया गया उनकी अगली फिल्म 'जो जीता वही सिकंदर'(1992) के बाद जिसमे एक बार फिर नायक थे उनके चचेरे भाई आमिर खान और संगीतकार थे जतिन-ललित.इस फिल्म के संगीत ने भी बहुत सफलता प्राप्त की और नृत्य-निर्देशक के तौर पर फराह खान को स्थापित किया(याद कीजिये 'पहला नशा,पहला खुमार....).इस फिल्म ने और एक बात साबित की,वो यह की मंसूर खान को भी संगीत की अच्छी समझ है जोकि उनके पिता के बैनर की एक खासियत रही है.इस फिल्म में उन्होंने कहानी और पटकथा की ज़िम्मेदारी भी संभाली थी और दोनों पर खरे उतरे.
 





















दरअसल यही वो फिल्म थी जिसने ज़बरदस्त रूप से मुझे मंसूर खान की निर्देशन प्रतिभा का प्रशंसक बनाया और मेरी नज़रों में उनका दर्जा काफी ऊँचा हो गया क्योंकि उनमे मुझे एक ऐसा निर्देशक नज़र आया जो फिल्मों की आत्मा यानि कहानी और उसे पेश करने के ढंग की महत्ता को बखूबी पहचानता था और साथ ही साथ संगीत की समझ भी रखता था.

मंसूर खान के लिए किरदार व्यक्ति-विशेष से अधिक मायने रखता थे इसीलिए तो उन्होंने आमिर खान के कद्दावर हो चुके स्टारडम से प्रभावित न होते हुए कहानी में कोई समझौता नहीं किया और उनके रोल को इंच भर भी घटाया-बढाया नहीं जो की उनके भाई की भूमिका करने वाले अभिनेता 'मॉमिक' से बस थोड़ा ही ज़्यादा था.मुझे याद है इस फिल्म का वो सीन जब आमिर और मॉमिक की लड़ाई होती है और मॉमिक एक घूंसे में आमिर को धुल चाटने पर मजबूर कर देते हैं जो की सर्वथा तर्कपूर्ण ही था.इस सीन में साफ़ तौर से मॉमिक आमिर पर हावी हैं पर सोचने वाली बात यह है की क्या आमिर ने तब इस सीन में अपनी कम प्रभावपूर्ण स्थिति पर ऐतराज़ नहीं किया होगा.....!! पर साथ ही साथ मुझे इस बात का भी यकीन है की मंसूर ने ऐसी किसी भी बेजा मांग को मानने से साफ़ इंकार ही कर दिया होगा जो कहानी में किसी भी प्रकार की छेड़-छाड़ को दावत देती हो.
मंसूर खान की फिल्मों में पिता-पुत्र के बीच बड़ा जज़्बाती और खूबसूरत रिश्ता विकसित किया जाता है,याद कीजिये 'क़यामत से क़यामत तक' का वो दृश्य जहाँ पिता(दलीप ताहिल),पुत्र(आमिर) का बेंत लेकर इंतज़ार कर रहा होता है और आमिर जब जूही के रिश्तेदारों द्वारा लताड़ और गाड़ी से टक्कर खाने के बाद लुटी-पिटी हालत में घर लौटता है और अपने पिता(दलीप ताहिल) को देखकर उसके गले से लिपट जाता है और पिता दलीप ताहिल भी बेंत छोड़कर आमिर को गले से लगा लेता है...कितनी ख़ूबसूरती से पिता-पुत्र के बीच भावनात्मक तार को बिना किसी संवाद के महसूस करवाया गया है.
ठीक ऐसे ही याद कीजिये 'जो जीता वही सिकंदर' के उस दृश्य को जिसमे पिता(कुलभूषण खरबंदा) जब शहर से बड़े पुत्र मॉमिक के लिए रेसिंग साइकिल लेकर आता है इस बात से अनजान की बेटे के साथ दुर्घटना घट चुकी है और घर पहुँचने पर परेशान हालत में छोटा नालायक बेटा(आमिर खान) पिता के गले से लिपट जाता है तो पिता की भी आँखे भर जाती है और वो उसे उसकी सुबह की गयी नालायकी के लिए माफ़ कर देता है.सच,कितना भावभीना दृश्य है,आज भी देखते हुए आँखे नम हो जाती है.
इसी तरह तीसरी फिल्म 'अकेले हम अकेले तुम' में भी पिता(आमिर) और पुत्र(माँ.आदिल) के बीच बहुत गाढ़ा और मज़बूत रिश्ता दर्शाया गया था.
दो ज़बरदस्त सफलताओं के पंखों से उड़ान भरते हुए मंसूर खान की तीसरी फिल्म थी 'अकेले हम अकेले तुम'(1995),इस फिल्म का विषय परिपक्व था जो मुफ़लिसी से जूझते हुए प्रेमी युगल के साथ शादी के बाद आने वाली परेशानियों पर प्रकाश डालता था और खासतौर से तब-जब प्रेमी युगल समान फील्ड में अपनी-अपनी जगह बनाने को जूझ रहे हो.मुझे तो ये कहानी 'अभिमान' से आगे की लगी जिसमे नायक-नायिका के बीच की 'प्रोफेशनल ईर्ष्या' उनके रिश्तों और पारिवारिक जीवन को और बेरहमी से तार-तार करती नज़र आई.

























इस बार मंसूर खान की इस फिल्म को औसत सफलता ही मिली पर संगीत फिर एक बार कर्णप्रिय था,हालाँकि आमिर खान का लगातार तीसरी बार का साथ कुछ और ही उम्मीदें लगाने की उम्मीद करवा रहा था.हालाँकि,आलोचकों में फिल्म की प्रशंसा ही हुई पर आम आदमी की कसौटी पर फिल्म कुछ बहुत ख़ास नहीं उतरी. 
लगातार तीन फिल्मों में आमिर खान को लेने के बाद जाने क्या हुआ की मंसूर खान ने अपनी नज़र उस वक़्त के सबसे कामयाब सितारे 'शाहरुख़ खान' पर केन्द्रित की और उन्हें लेकर बनायीं 'जोश'(2000),संगीत एक बार फिर अनु मालिक का था और लेखन-निर्देशन की दोहरी ज़िम्मेदारी एक बार फिर मंसूर खान पर थी.



















पर इस बार सारी तस्वीर ही उलटी थी,सारा जादू नदारद,कहानी बेहद अनाकर्षक और अप्रभावित करने वाली,हालाँकि संगीत ने कुछ लाज रखी पर कुल मिलाकर इस फिल्म ने मंसूर खान की छवि को बहुत कुछ हल्का कर दिया.
बस यही वो आखिरी फिल्म थी जिसके बाद से अनजान कारणों से मंसूर खान का दिल निर्देशन से उचट गया और वो तमिलनाडू के कुनूर ज़िले में क़रीब 8 साल निष्क्रिय जीवन व्यतीत करने के बाद वापसी करते हैं 'जाने तू ..या जाने न'(2008) से पर सह-निर्माता के रूप में.

तब के मंसूर खान.....

 
 






















और आज के मंसूर खान....








































इस निष्क्रिय जीवन जीने के पीछे की क्या वजहें रहीं इनका तो मंसूर खान ने किसी भी साक्षात्कार में खुलासा नहीं किया परन्तु कयास लगाने पर भी उनके भरी जवानी में लिए गए 'फ़िल्मी-सन्यास' की कोई ख़ास वजह नज़र नहीं आती सिवाए इसके की शायद वो तेज़ी से बदलते फिल्म निर्माण के तरीकों से तालमेल नहीं बिठा पाए.
जो भी हो पर मैं तो सिर्फ यही उम्मीद कर सकता हूँ की जल्द की उनके मन में निर्देशन का कीड़ा फिर कुलबुलाये और वो धमाकेदार रूप से फिर एक बार वापसी करें अपने स्टाइल की खूबसूरत फिल्मों के साथ.
दोस्तों,तो यह थी वक़्त के ग़ुबार में छुपे हुए निर्देशकों पर प्रकाश डालने वाली लेखमाला की श्रुंखला में पहली कड़ी आगे हम और भी ऐसे ही निर्देशकों पर बाते करेंगे तब तक के लिए इजाज़त. 

11 comments:

kuldeepjain said...

बहुत खूब जहीर भाई.. बिलकुल आपके जहुरे को सार्थक करता हुआ पोस्ट. जोश मैंने देखी नहीं और 'अकेले हम अकेले तुम' मुझे पसंद नहीं आयी . पर ये सच है की उस वक़्त QSQT और JJWS का चढ़ा जादू आज भी बरक़रार है.आयशा जुल्का ने जो सहज अभिनय JJWS में किया था वो जबरदस्त था. जोश का क्या प्रचार किया गया था खास तौर से गाना " अपुन बोला तू मेरी लैला " . किंग खान और श्रीमती बच्चन की यह पिक्चर से लोगो ने बेहद उमीदे बांध ली थी . ऐसा हो सकता है की लोगो की उमीदे टूटी और साथ में मंसूर खान की धुन. शायद उस धुन को सवारने में उन्होंने इतना वक़्त लगा दिया. (८ साल).

kuldeepjain said...

शायद ये जगह इस खबर के लिए सही नहीं पर आप सबको मालूम हो की पिछले शनिवार श्री कन्हया लाल 'नंदन' का निधन हो गया. श्री नंदन बाल पत्रिका नंदन और पराग के संपादक थे और एक उच्च कोटि के साहित्यकार. हम लोगो का बचपन नंदन और पराग की मधुर यादो से जुड़ा हुआ है और श्री नंदन का निधन उन यादो में उदासी भरता है. हम सब 'बच्चो' की तरफ से उन्हें श्रंधाजली.

Comic World said...

Kuldeep Bhai: ठीक कहा कुलदीप भाई,AHAT में कुछ कमी रह गयी थी और 'जोश' तो बिलकुल ही पटरी से हटी हुई थी.'आयशा जुल्का' ने सचमुच कमाल का अभिनय किया था JJWS में पर विडंबना यह रही की खासी अभिनय प्रतिभा रखते हुए भी अपने कैरियर को सही दिशा देने में नाकाम रही आयशा और अरमान कोहली जैसे फ्लर्ट के चक्कर में फंस कर अपने काफी कीमती वर्ष बर्बाद कर दिए.
JJWS में पहले एक नयी तारिका 'गिरिजा' को अनुबंधित किया गया था आयशा वाले रोल के लिए पर उसकी गैर-ज़िम्मेदारी की वजह से ये फिल्म उसके हाथ से निकल गयी,हालाँकि फिल्म के एक-दो रील फिल्माई भी जा चुकी थीं.अगर गिरिजा ही फिल्म में रहती तो जाने आज हम आयशा के नाम से परिचित होते भी या नहीं.
श्री कन्हैया लाल 'नंदन' के निधन की खबर सुन कर दुःख हुआ,सच में वो साहित्य का एक स्तम्भ थे.हम सबकी उनको भावपुरक श्रद्धांजलि.

Rahul Rattan said...

Very well said Zaheer bhai..Even i Like mansoor Khan as director I loved JJWS and Josh somehow AHAT didnt appeal to me but still it was 100 tmes better than other movies which were put up by other directors in that time..All Mansoor khan films have done good business @ box-office..so theres no reason why he shouldnt come up with new movies .I have always wondered that..may be you could throw some light on that..

Comic World said...

Rahur Rattan: Yeah,regarding Box Office his all films have done a fairly good business though his last two films might not have lived to the expectations.
This article was prepared in same spirit to discuss about the reasons which made him to quit.

nahlawat said...

well tell u frankly he was famous and hit director but never a good one his movies had greatet songs of all time but his movies were copied from hollywood other then jjws all were stupid in qsqt i was laughing and feeling so pissed how can people like this a guy running with gal living in mountains with cutting trees and making home of stones and wood were they from pre historic era if someone feel i write something wround please correct me

Comic World said...

Nahlawat: The greatness of any film director lies in that how he presents his/her project,originality doesn't have much value as a film may be original but if its not been made in convincing manner then public will outrightly reject it.Yes,i agree that JJWS,ATAH and Josh were not original concept rather they were inspired with Hollywood movies but the talent of Mansoor Khan lies in the job that he presented these inspired stories in such a convincing manner that a normal cine-goer liked them very much.
Regarding the unconvincing facts of QSQT which you mentioned then these are known as cinematic liberties which doesn't seem unconvincing if a movie's way of projection is gripping enough,also to expect 100% real life story from cinema is improper as Hindi cinema is a dream seller and not all the dreams always can be true.
If one is adamant to find real life facts in Hindi movies then we have to reject all Manmohan Desai's movies,also has any one heard/seen the Gurukul School which was mentioned in blockbuster 'Mohabbatien',can anyone believe in the type of college which was depicted in 'Kuch Kuch Hota Hai'?

मोहम्मद कासिम said...

kohye hoowe mansoor ji ke bare mein achhi jaankari... mujhe unki sabhi filme pasand hai..

josh was also a good movie.. kuch kamiya thi us jamane ke hisaab se.

abcd said...

mansoor khan ko unki film ka hi ek gaana dedicate kiyaa jaye---

ruth kar humse kabhee jab chale jaooge tum...
ye naa sochaa tha kabhi itne yaad aaoge tum...

Übermann said...

thanks for such a nice article..

you indeed have power in your pen, carefully woven words, flow like quite river.

Great!

Comic World said...

Ubermann: Welcome dost and thanks for appreciative words.I am really encouraged to prepare/post more such articles.

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